Saturday 1 February 2014

देश की हड्डी को चूस रहें हैं

सुधर्मा ! आज हमारे देश के निवासी अपने अज्ञान वश कितनी ही विभिन्नताओ एवं जाति-उपजाति, ऊँच-नीच, बड़ा छोटा, भासा प्रान्त और धर्म की भेद मूलक विघटनकारी भावनाओ एवं प्रवृत्तियों के जाल में उलझे हुयें हैं !

देवता, मंदिर, मस्जिद या गरजाघरों के प्रतिनिधित्व का दावा   करने  वाले लोगों को विकृतियों ने धर दबोचा हैं ! ऐसा प्रतीत होता है कि देश के नये शासको के अनुयायी, वेतन भोगी सेवक अनुशासक का परित्याग कर चुके हैं !


वे अपनी सीमा लाँघ कर, बहुत सी सीमाओं को तोड़कर सभी सर्वमान्य मर्यादाओं का उल्लघन करते रहे हैं और सभी कर रहे हैं ! यह जान पड़ता हैं कि जाति इत्यादि के दानवों ने हमारे रास्ट्र और समाज का रक्त चूस कर उन्हें पहले ही निरीह बना  दिया है ! अब सरकारी यंत्रो के संचालक संघारक और उनके असंख्य सेवक स्वान कि भाति उसकी हड्डी चबाने के कृत्य में संलंग्न हैं ! जिस प्रकार श्वान मुर्दा की हड्डी चबाने के क्रम में अपने ही मुख से निकलने वाले रक्त को मृतक का रक्त समझकर और भी चाव से उस हड्डी को चबाने और काटने लगता है उसी प्रकार से ये सरकारी कर्मचारी रास्ट्र और समाज  की बची खुची हड्डियों में अभी रक्त शेष है ऎसा सोच कर उन्हें अत्त्यंत ही उतावला और उज्झखल होकर बारबार नोचते हैं और चूसते हैं! उन्हें नहीं मालूम है कि इन हड्डियों के गलकर फटने से ही कुछ रक्त उन्हें मिल रहा हैं !

सुधर्मा ! कोई ऐसी राजकीय संस्था नहीं है, कोई ऐसा अधिकारी नहीं है  जो अपने इस संस्कृत देश के निरीह नागरिको को पनाह दे सके, उन्हें इस ब्यापक घुटन से मुक्त कर साँस लेने की छूट दे सके !
यह जो नित्य प्रति हर वर्ग के  हर वर्ण में घट रहा है, उस अज्ञात की देन नहीं है  !   

No comments:

Post a Comment